लखनऊ। घोसी उपचुनाव के परिणाम से यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा ही नहीं उसके सहयोगी दलों सुभासपा और निषाद पार्टी के नेता भी चुनावी प्रबंधन में फेल साबित हुए हैं। ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद अपनी-अपनी जातियों के मतों का बिखराव नहीं रोक सके। इसके अलावा बड़ी संख्या में दलित मतों को सहेजने में एनडीए की रणनीति कारगर नहीं रही। दरअसल, घोसी विधानसभा क्षेत्र में राजभर, चौहान, कुर्मी और निषाद जाति के अलावा उनकी उपजातियों के मतदाताओं की संख्या 35 प्रतिशत के करीब है। इनमें सबसे अधिक संख्या चौहान जाति की करीब 11 प्रतिशत और राजभर जाति की करीब 9 प्रतिशत है।
इनके अलावा दलित मतदाताओं की संख्या भी 21 प्रतिशत के करीब है। इसके बावजूद भाजपा प्रत्याशी दारा सिंह को कुल 37.54 प्रतिशत ही वोट मिले सके। इसलिए माना जा रहा है कि सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से अपनी-अपनी जातियों के मतों को लेकर दावा कर रहे थे, वे गलत साबित हुए। क्षेत्रीय सियासत के जानकारों का कहना है कि अगर पिछड़ी जातियों में बिखराव न हुआ होता तो दारा सिंह चौहान भले ही अधिक मतों से नहीं जीतते, पर उन्हें इतनी शर्मनाक हार का सामना भी न करना पड़ता।माना जा रहा है कि सुभासपा और निषाद पार्टी के अध्यक्ष भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की तरह अति आत्मविश्वास से भरे रहे। दोनों नेता यह मान कर चल रहे थे कि उनकी जाति के लोग उनके अलावा किसी और के पाले में नहीं जाएंगे। विपक्ष की सेंधमारी की रणनीति का उन्हें तनिक भी अंदाजा नहीं रहा। मतदान के दिन तक भी ये नेता अति आत्मविश्वास के चलते मतदाताओं का मूड नहीं भांप पाए। इसलिए जातियों के बिखराव को रोकने में असफल रहे।
राजभर और निषाद के अलावा दारा सिंह चौहान भी अपनी जातियों पर असर छोड़ने में नाकामयाब रहे। घोसी क्षेत्र में चौहान जाति के भी मतदाताओं की संख्या 11 प्रतिशत के करीब बताई जाती है। सूत्रों की मानें तो इनकी जाति के मतदाताओं में भी बिखराव हुआ है। कहा जा रहा है कि इनके सजातीय एक पूर्व नेता ने भी चौहान जाति के मतों में बिखराव में बड़ी भूमिका निभाई है। दलितों में सबसे अधिक हरिजन जाति (करीब 19 प्रतिशत) के मतदाताओं में भारी बिखराव को भी चौहान के हार का प्रमुख कारण माना जा रहा है। इस विधानसभा क्षेत्र में भूमिहार मतदाताओं की संख्या भी 48000 के करीब है। इनको साधने के लिए भाजपा संगठन ने कई कद्दावर नेताओं को लगाया था। इन नेताओं ने दिन-रात मेहनत भी की थी, लेकिन जमीनी स्तर पर तैयारी न करने की वजह से इनकी रणनीति फेल रही। भूमिहार जाति में बिखराव होने की बात कही जा रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि घोसी में सत्ताधारी दल की हार की कई वजहें रहीं। इसमें पुरानी पेंशन के मुद्दे ने भी बड़ा रोल अदा किया है। उन्होंने बताया कि पुरानी पेंशन बहाल न किए जाने से नाराज पिछड़ी जातियों के स्थानीय कर्मचारियों ने भाजपा के खिलाफ जमकर प्रचार किया। युवा वर्ग भी इस मुद्दे से सीधे जुड़ा। पिछड़ी जातियों में तेज बिखराव में कर्मचारियों व युवाओं की भूमिका ने अहम रोल अदा किया। इसके अलावा राजभर और निषाद की तुलना में सपा से जुड़े स्थानीय नेताओं का असर अधिक रहा। इससे सुभासपा और निषाद पार्टी के नेताओं के बजाय लोगों ने स्थानीय नेताओं को तरजीह दी। कभी ओम प्रकाश राजभर के खास रहे महेंद्र राजभर की सक्रियता से भी राजभर जाति के लोगों को सपा के पक्ष में लाने में मदद मिली।
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