जयप्रकाश पांडेय
लखनऊ। दक्षिणपंथी विचारधारा की संवाहक भारतीय जनता पार्टी के सर्वाच्च नेता द्वारा उत्तर प्रदेश में एक जनसभा में लाल टोपी विशेषकर एक रंग पर हमला मूलतः भारत की उनकी अधूरी समझ और अतिवादी सोच को प्रदर्शित करता है। बीजेपी का समकालीन नेतृत्व नफरत और विरोध में ही अपना वजूद तलाश रहा है। यही कारण है कि दिल्ली के महाराजा के सुर में सुर मिलाते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और संगठन के प्रदेश अध्यक्ष भी भारत की विविधता एवं सांस्कृतिक बहुलता पर हमलावर हो गए हैं। यह विडंबना है कि राष्ट्रवाद का दम भरने वाले सत्ताधारी दल के नेता आंचलिक संस्कृतियों, पृथक जीवन पद्धति, वेशभूषा के प्रति हिकारत का भाव प्रदर्शित कर भारत की आत्मा पर चोट कर रहे हैं। उन्हें ध्यान देना चाहिए कि प्रकृति ने अपनी बहुरंगी तूलिका से भारत-भूमि के वैविध्य का आत्मीय सृजन किया है। उत्तर में विश्व के सबसे ऊंचे पर्वत हिमालय राज की चोटियों पर बर्फ की श्वेत चादर है तो दक्षिण में हिंद महासागर की उत्तल तरंगे प्रायद्वीपीय तट को स्पर्शित कर रही है। पश्चिम में राजस्थान की स्वर्णिम बालुका राशि बिखरी है तो पूरब की ओर गंगा घाटी की शस्य-श्यामला धरती दुनिया की सर्वाधिक घनत्व वाली खेतिहर जाति की आश्रय दे रही है। यदि एक ओर महाराष्ट्र, मैसूर एवं तेलंगाना मे पठार की उच्च भूमि है तो दूसरी ओर कोरोमंडल, कोंकण एवं मालाबार की तटीय निम्न भूमि भी है। पृथक भौतिक एवं जलवायुगत दशाओं-तापमान, वायुदाब, वर्षा, आर्द्रता आदि के कारण भारत में सदाबहार, पतझड़ एवं मैंग्रोव वनों और बहुरंगी वन्य-प्राणियों की विलक्षण दुनिया का विकास हुआ। इस भौतिक एवं जलवायुगत विषमता के कारण देश के विभिन्न अंचलों में पृथक-पृथक फसल चक्र एवं पशुधन का विकास हुआ।
सभ्यता के विकास के क्रम में हमारे पुरखों ने भारत भूमि के विविध प्राकृतिक प्रदेशों में नैसर्गिक रूप से पृथक खान-पान, वेषभूषा, भाषा एवं लोक संस्कृति को विकसित किया। आंचलिक संस्कृतियों की यह बहुरंगी एवं बहुलतावादी दुनिया ही अखंड भारत की प्राण शक्ति है। मेगस्थनीज से मैक्समूलर तक यह मानते हैं की सदियों की गुलामी के दौर में भी इस देश में आंचलिक संस्कृतियों की बहुरंगी छटा पूरे लय में बिखरती रही और आंचलिक संस्कृतियों में भारतीय लोकजीवन की रचनात्मकता प्रत्येक स्तर पर नई जमीन तोड़ती रही। वैचारिक स्तर पर इस देश में जन्म लेने वाले सभी धर्म, संप्रदाय समन्वयवादी एवं सहिष्णुतावादी दृष्टिकोण के आग्रही हैं। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में ही हमारे मनीषियों ने वैचारिक सहिष्णुता की उद्घोषणा कर दी “एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति“ (सत्य एक ही है विद्वान उसे पृथक-पृथक अभिव्यक्त करते हैं) उपनिषदों, महाकाव्यों, पुराणों में यह सहिष्णुता यथावत परिलक्षित होती है। जैन धर्म का अनेकांतवाद दर्शन बहुरंगी विचारधारा एवं संस्कृति के प्रति आत्मीय एवं वैचारिक सहिष्णुता की पराकाष्ठा है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी भगवान राम के मुख से “सिव द्रोही मम भगत कहावा, सो नार सपनेहु मोहि न पावा“ कहला कर विराट समन्वय की चेष्टा की। मध्यकाल में भारत के चिश्ती सिलसिले के महान दरवेशो- ख्वाजा अजमेरी एवं निजामुद्दीन औलिया ने भी “वहदत-ऊल-वजूद” विचारधारा को प्रतिष्ठित करते हुए सभी मजहबो के प्रति समभाव, सद्भावना की वकालत की है। राजा राममोहन राय से विवेकानंद तक के आधुनिक धार्मिक-सामाजिक सुधारकों ने भी सर्वेश्वरवाद एवं सहिष्णुतावाद को धर्म का मूल घोषित किया। यह वैचारिक एवं दार्शनिक सहिष्णुता ही है जिसके कारण विभिन्न संप्रदायों, उपासना पद्धतियों में परस्पर विरोधी तत्व होते हुए भी भारत में यूरोप के कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट अथवा मध्य एशिया के शिया-सुन्नी संप्रदाय जैसे खूनी संघर्ष नहीं हो पाए।
लोकजीवन के आचरण, व्यवहार से लेकर भारतीय राजनीति के कूटनीतिक स्तर एवं प्रतिरोध की जमीन पर भी यह बहुप्रसिद्ध सहिष्णुता, समन्वयवाद एवं सद्भावना विद्यमान रही है। संघ परिवार एवं भारतीय जनता पार्टी जिन ऐतिहासिक नायकों को अपना आदर्श घोषित करती है-चंद्रगुप्त मौर्य, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी के आचरण में भी बहुरंगी संस्कृति के प्रति सद्भावना एवं सम्मान दिखता है। सम्राट चंद्रगुप्त ने देश को यूनानी दासता से मुक्ति दिलाई। यवन सम्राट सेल्यूकस को परास्त करते हुए भी उन्होंने यूनानी संस्कृति की वेशभूषा, प्रतीक, रंग के प्रति हिकारत का भाव प्रकट करने के स्थान पर सद्भावना और सम्मान प्रदर्शित किया। महाराणा प्रताप ने राजनीतिक शत्रु अकबर का प्रतिरोध किया किंतु हकीम खां सूर जैसे मुस्लिमों को अपने साथ मिलाकर हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल भी कायम की छत्रपति शिवाजी औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता के प्रबल विरोधी थे किंतु अपनी स्वराज की लड़ाई में उन्होंने कभी भी कुरान का अपमान नहीं किया, मस्जिद को अपवित्र नहीं किया, मुस्लिम बहनों के प्रति भी उनका आदरणीय व्यवहार तारीख में उच्च प्रतिमान स्थापित करता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अब्बा जान जैसे शब्द का उपयोग उपहास मुद्रा में करते हैं। उन्हें ध्यान देना चाहिए की छत्रपति शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले था। यह नाम शाह फकीर की दुआओं के कारण ही रखा गया था। बालक शिवाजी अपने पिता को इसी संबोधन से नवाजते थे। वस्तुतः अब्बा जान का मजाक छत्रपति शिवाजी के संबोधनो का अनजाने में अपमान है।
महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग से नेल्सन मंडेला तक लोकतांत्रिक संघर्ष के महानायकों ने भी राजनीतिक प्रतिरोध में स्थापित शासकों के वेशभूषा, जीवन पद्धति, रंग के प्रति नफरत और विद्वेष प्रदर्शित नहीं किया। नेल्सन मंडेला तो नस्लवाद शिकार भी थे और रंगभेद के खिलाफ सबसे बड़ी लोकतांत्रिक लड़ाई जीतने वाले थे। फिर भी उन्होंने अंग्रेजों के रंग पर सतही एवं विद्वेषपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं की। एकरंगी सोच इस बहुलतावादी देश में फासिस्ट आदर्श-एक धर्म, एक भाषा, एक जाति, एक देश का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भारतीय संस्करण है। इतिहास गवाह है कि जब भी किसी देश में आंचलिक संस्कृतियों की बहुरंगी छवि को बलात रूप से कुचलकर एकरंगी शक्ल देने की कोशिश की गई तो ऐसे बहुलतावादी राष्ट्र की अखंडता खतरे में पड़ गई। साम्यवाद की एकरंगी की सोच ने अपने अंतर्विरोध से ही सोवियत संघ को पन्द्रह टुकड़ों में खंडित कर दिया। हमारी ही जमीन के हिस्से रहे पाकिस्तान ने जब बंगाल की आंचलिकता एवं बांग्ला भाषा को कुचल कर उर्दू भाषा की एकरंगी की सोच लागू करने की चेष्टा की तो समान धर्म के अनुयाई होते हुए भी बांग्लादेश ने पाकिस्तान से नाता तोड़ लिया। वही भारत के महान नेताओं महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्रभाषा हिंदी की वकालत करते हुए अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के खिलाफ स्वदेशी भाषा पर बल दिया किंतु द्रविड़ भाषाओं- तमिल तेलुगू, कन्नड़, मलयालम एवं बंगाली भाषा के प्रति सद्भावना एवं सम्मान प्रदर्शित किया। दूरदर्शी नेताओं की वैचारिक सहिष्णुता ने हिंदी विरोधी आंदोलन को देश विरोधी आंदोलन होने से बचाने में सफलता हासिल की। किसी भी तरह की एकरंगी सोच एवं आग्रह धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से संवेदनशील इस बहुलतावादी देश की अखंडता के लिए खतरा है।
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