लखनऊ। राज्यसभा की दस सीटों के चुनाव भाजपा की जीत या सपा की हार तक सीमित नहीं हैं। इस चुनाव के नतीजे आगामी लोकसभा चुनाव के समीकरणों में बड़े असर वाले साबित हो सकते हैं। इसने एक ओर लोकसभा चुनाव से पहले सपा-कांग्रेस के हाथ मिलाने से यूपी में इंडिया गठबंधन की सियासी हवा बदलने की उम्मीदों को कमजोर किया है। दूसरी ओर सपा के पीडीए फार्मूले की कमजोरी भी उजागर कर दी है।
यूपी में राज्यसभा के दस सीटों के चुनाव नतीजे कई मायने में अहम रहे। पहला, ये चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले हुए। लिहाजा जीतने से भाजपा को बड़ा मनोवैज्ञानिक लाभ हुआ है। उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ेगा और संगठन व सरकार में समन्वय का बड़ा संदेश जाएगा। हारने पर विपक्ष सत्ता से संगठन तक की कमजोरी से जोड़कर खिलाफ माहौल बनाने का प्रयास करता। दूसरा, इस चुनाव से ठीक पहले सपा और कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के लिए हाथ मिलाया था। दोनों दलों ने एनडीए से तेजी दिखाते हुए सीटों का बंटवारा किया। एकजुटता दिखाते हुए तत्काल ही सपा मुखिया अखिलेश यादव कांग्रेस नेता राहुल गांधी की न्याय यात्रा में शामिल हुए। मगर, राज्यसभा चुनाव में सपा की तीसरी सीट पर हार का संकेत है कि सपा का कांग्रेस से गठबंधन अपने विधायकों में ही भरोसा पैदा नहीं कर पाया। उसके सात विधायकों ने इस गठबंधन के बाद क्रास वोट किया और एक वोट देने नहीं पहुंची। तीसरे प्रत्याशी की हार से सपा के साथ कांग्रेस खेमे में भी मायूसी बढ़ी है। कमजोर मनोबल से लोकसभा चुनाव में यह गठबंधन कितना कमाल दिखाएगा, यह देखने वाली बात होगी।
तीसरा, समाजवादी पार्टी ने पिछड़ा, अल्पसंख्यक और दलितों की गोलबंदी के लिए पीडीए फार्मूले का जोरशोर से प्रचार किया था। इसे बल देने के लिए लोकसभा के लिए अपरकास्ट को टिकट देने में कोताही की। इससे अपरकास्ट के कई विधायकों में असहजता और नाराजगी पहले से थी। भाजपा ने इस फार्मूले की हवा निकालने के लिए राज्यसभा चुनाव को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। राज्यसभा की रिक्त दस में से सात सीटों पर भाजपा और तीन पर सपा की जीत तय मानी जा रही थी। पहले दोनों ओर से इतने ही प्रत्याशियों को मैदान में उतारा गया।
मतदान की संभावना नहीं थी। लेकिन, सपा ने अपने पीडीए फार्मूले को नजरअंदाज करते हुए तीन प्रत्याशियों में एक दलित व दो कायस्थ उतार दिए। पिछड़े व मुस्लिम समाज को नजरंदाज किया। इसका सपा में विरोध शुरू हो गया। नतीजा ये हुआ कि पीडीए की वकालत करने वाले पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने सपा की सदस्यता व एमएलसी पद से इस्तीफा दे दिया। सपा की विधायक पल्लवी पटेल ने खुली नाराजगी जाहिर कर दी। पूर्व केंद्रीय मंत्री सलीम शेरवानी सहित कइयों ने सपा संगठन की जिम्मेदारियों को छोड़ दिया। भाजपा ने सपा की इस चुनौती को और बढ़ाने के लिए आठवां प्रत्याशी उतारा। साथ ही उसकी कामयाबी के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संगठन के साथ समन्वय कर खुद मोर्चा संभाला। बताया जाता है कि न सिर्फ विपक्षी खेमे से लाए जाने वाले एक-एक विधायक से मुलाकात की, बल्कि पूर्ण संरक्षण का भरोसा भी दिया।
मंगलवार को जब चुनाव नतीजे सामने आए तो पता चला कि सपा के आठ विधायक पार्टी लाइन से बाहर चले गए। इन आठ में से पांच अपर कास्ट व तीन पिछड़ा समाज से हैं। संकेत साफ है कि भाजपा का आठवें प्रत्याशी का दांव बिल्कुल सटीक साबित हुआ। इससे न सिर्फ सपा से अपरकास्ट विधायकों की बल्कि पिछड़े समाज की भी नाराजगी मुखर हो गई। सपा रालोद के जिस मुस्लिम विधायक के समर्थन की उम्मीद कर रही थी, वह भी हासिल नहीं कर पाई। इस पाला बदल से अंबेडकरनगर, अयोध्या, अमेठी और रायबरेली की लोकसभा सीटों के समीकरण सीधे प्रभावित होने के आसार बढ़ गए हैं।
0 Comments