...और जब प्रेमचंद ने महात्मा गांधी का भाषण सुनकर छोड़ दी सरकारी नौकरी


गोरखपुर। जिले में प्रेमचंद गंभीर रूप से बीमार पड़े। ऐसी स्थिति हो गई कि बचने की आशा न रही। इस दौरान 8 फरवरी 1921 को महात्मा गांधी गोरखपुर आए। प्रेमचंद पत्नी और बच्चों के साथ गांधी जी का भाषण सुनने गए।शिवरानी देवी लिखती हैं, ‘असहयोग का जमाना था। गांधी जी गोरखपुर में आए, आप बीमार थे, फिर भी मैं, दोनों लड़के, बाबूजी मीटिंग में गए। महात्माजी का भाषण सुनकर हम दोनों बहुत प्रभावित हुए। हां, बीमारी की हालत थी, विवशता थी मगर तभी से सरकारी नौकरी के प्रति एक तरह की उदासीनता पैदा हुई।

प्रेमचंद को 40 रुपये वेतन मिलता था। इसमें से दस रुपये वह अपनी चाची को भेज देते थे। बेहद तंगी थी। इसके बावजूद गांधी जी के भाषण के प्रभाव में उन्होंने नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया लेकिन यह निर्णय इतना आसान नहीं था। लिखती हैं, ‘एक दिन की बात है, मुझसे बोले- तुम राय देतीं तो सरकारी नौकरी छोड़ देता। मै जवाब देती हुई बोली कि इस विषय पर विचार करने के लिए दो-तीन दिन का समय चाहिए। प्रेमचंद बोले मैं तो खुद ही चाहता हूं कि पहले तुम अपना विचार ठीक कर लो। प्रेमचंद तो नौकरी छोड़ने का इरादा कर चुके थे लेकिन वह शिवरानी देवी की सहमति चाहते थे। शिवरानी देवी लिखती हैं कि ‘जो उलझन उनको थी वही दो-तीन दिन मुझे भी हुई। मुझे भी बार-बार यही ख्याल होता कि आखिर बीए की ख़्वाहिश क्यों हुई, यही न कि आगे तरक्की की आशा, पहले तो यह ख्याल था कि यह कभी प्रोफेसर हो जाएंगे और जीवन के दिन आराम से कटेंगे क्योंकि सेहत अच्छी न थी और कहां यह प्रस्ताव कि जो कुछ मिलता है उसको भी छोड़कर महज हवा में उड़ा जाए इन सब बातों को सोचकर यही दिल में आता था कि इनको नौकरी छोड़ने से रोक दूं।

दो रोज का समय लिया था लेकिन चार-पांच दिन में भी कोई निर्णय न कर सकी। चार-पांच दिन दिन के बाद उन्होंने फिर पूछा कि बतलाओ कि तुमने क्या निर्णय लिया। मैं बोली, एक दिन का समय और. उस दिन मैने यह सोचा कि आखिर यह इतने बीमार थे और बचने की कोई आशा न थी। एक तरह शायद उन्होंने मुझे जवाब ही दे दिया था, यह कहकर कि यह 3000 रुपये हैं और तीन तुम हो, मैंने सोचा कि यह अच्छे हो गए हैं तो नौकरी की कोई चिंता न होनी चाहिए क्योंकि ईश्वर कुछ अच्छा ही करने वाला होगा, तभी तो यह अच्छे हो गए हैं। मान लो जब यही नहीं रहते तो मैं क्या करती, शायद इसी काम के लिए ईश्वर ने इन्हें अच्छा किया हो।फिर उन दिनों जलियांवाले बाग में जो भीषण हत्याकांड हुआ था, उसकी ज्वाला सभी के दिल में होना स्वभाविक थी। वह शायद मेरे भी दिल में रही हो, दूसरे दिन अपने को उन सभी मुसीबतों को सहने के लिए तैयार कर पाई जो नौकरी छोड़ने पर आने वाली थी।

दूसरे दिन मैंने उनसे कहा, छोड़ दीजिए नौकरी को, 25 वर्ष की नौकरी छोड़ते हुए तकलीफ तो होती ही थी। मगर नहीं! यह जो मुल्क पर अत्याचार हो रहे थे, उसको देखते हुए वह शायद नहीं के बराबर था। जब मैंने उनसे कहा कि छोड़ दीजिए नौकरी क्योंकि इन अत्याचारों को तो अब सबको मिलकर मिटाना होगा और यह सरकारी नीति अब सहनशक्ति के बाहर है। वे बोले, ‘अब आप अपनी स्वभाविक हंसी-हंसकर बोले, दूसरों का अंत करने के पहले अपना अंत सोच लो द्य’ मैं बोली, ‘मैंने सोच लिया है, जब तुम अच्छे हो गए हो तो मैं सोचती हूं कि अब आगे भी मैं जंगल में मंगल कर सकूंगी और मेरा ख्याल है कि ईश्वर कुछ अच्छा ही करने वाला है। शिवरानी देवी की सहमति मिलने के अगले दिन यानी 16 फरवरी 1921 को प्रेमचंद ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और सरकारी मकान भी छोड़ दिया।

स्रोतः नर्मदा पत्रिका का प्रेमचंद अंक

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