91वीं जन्मदिन पर विषेश
आजमगढ़। चन्द्रजीत यादव मूलतः एक चिन्तक, विचारक, बुद्धिजीवी थे। लोकसभा में उन्होंने अपने सांसद होने का जीवन्त प्रमाण प्रस्तुत किया। नागरिकों के समान अधिकार के लिए उन्होने दमदार आवाज उठाया। अपने समय में वे एक अग्रणी सांसद थे। उन्होने साम्यवाद से समानता का जीवन दर्शन प्राप्त किया था, जिसके लिए वे आजीवन कर्मपरायण बने रहे। युनियन मिनिस्टर जैसा पद, उनके राजनैतिक सिद्धान्त के आगे फीका था। इससे उनकी पहचान नहीं बनी, अपितु विश्व में उनकी पहचान विद्वता और प्रगतिशील विचारों से हुई। चन्द्रजीत यादव जनता के बीच के अन्तर्विरोधों को अच्छी तरह, निकट से समझते थे। इसीलिए सिद्धान्त रूप से वे वर्ग शत्रु की पहचान अच्छी तरह करते थे और वर्गीकरण करने में उनसे कहीं, कोई गलती नहीं हुई। देश के सामने सामाजिक रूप से पिछड़ी, दलित, शोषित, वंचित, अल्पसंख्यक जनता, और उसके शत्रु के अन्तर्विरोध तथा वंचित जनता के अन्दर के अन्तर्विरोध मौजूद थे और आज भी है। इन दोनों प्रकार के अन्तर्विरोधों को चन्द्रजीत यादव खूब समझते थे और उन्होने इन अन्तर्विरोधों को हल करने के लिए नई दृष्टि दिया। यह दृष्टि उनकी सैद्धांतिकी और विचार बन गए, जिन्हे पूरे विश्व में सराहा गया।
चन्द्रजीत यादव ने, हाथ से काम करने के कारण, जिन्हें नीच, अछूत, म्लेच्छ कह कर मानव से हटकर अलग पहचान दी गई, ऐसी तमाम सामाजिक शक्तियों की एका कायम कर लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक समाजवाद के लिए वर्ग संघर्ष की पूरी दूनिया में वकालत किया। भारतीय परिवेश में, वे वोट की राजनीति की परवाह किये बिना पूरी हिम्मत के साथ बार-बार ब्राम्हणवाद पर हमला करते रहे। उन्होने बार-बार कहा कि उनका विरोध किसी ब्राम्हण से अथवा ब्राम्हण जाति से नहीं है। उन तमाम ऐसी जातियां, ऐेसे लोगों से विरोध है, जिनकी सोच मेें ब्राम्हणवाद घुसा हुआ है। भारत में ब्राम्हणवाद को नष्ट किये बिना लोकतांत्रिक समाजवाद के संघर्ष का रास्ता प्रशस्त नहीं हो सकता।
चन्द्रजीत यादव न्याय संगत समाज की स्थापना का लक्ष्य रखते थे। इसके लिए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता पर काफी जोर दिया न्याय संगत समाज की स्थापना और उसकी मजबूती राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय सम्प्रभुता के लिए आवश्यक है। उनका मानना था कि साम्प्रदायिकता वह जहर है, जिससे राष्ट्रीय एकता और सम्प्रभुता को खतरा है। वे पूरी तरह राष्ट्रवादी थे, किन्तु अन्ध राष्ट्रवादी नहीं थे। राष्ट्रवाद को वे प्रगतिशील खुली दष्ष्टि से देखते थे। इस राष्ट्र में न्याय, सभी धर्मों को सम्मान, सभी वर्गों/जातियों को समान अधिकार देने का मजबूत संकल्प हो।वे राजनीति में हिंसा का पुरजोर विरोध करते थे। लेकिन नक्सलवादी समस्या पर संसद मेें विचार रखते हुए उन्होने कहा था, इसकी जड़ में आर्थिक समस्याएं, सामाजिक समस्याएं और राजनीतिक पहलू भी हैं। उन्होने स्वीकार किया था कि यह व्यवस्था का एक बड़ा द्वन्द है। इस द्वन्द का हल निकाले बिना समस्या को समाप्त नहीं किया जा सकता। इन द्वन्दात्मक समस्याओं की जड़ में जाना आवश्यक है।
चन्द्रजीत यादव भूमि सुधार कानून में संशोधन कर लाखों एकड़ बंजर भूमि को भूमिहीनों को दिये जाने के अतिरिक्त, मजदूरी पर खेत पर काम करने वालों को उस भूमि का मालिकाना हक देने के पक्ष में थे। इसके लिए उन्होने संसद में खेतिहर मजदूरों के पक्ष को दमदारी के साथ रखा था। उनका मानना था देश के भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को भूमि का मालिक बनाने से, उन्हें जीने का सहारा तो मिलेगा ही, देश का कष्षि उत्पादन काफी बढ़ जायेगा। उन्होने प्रिवीपर्स को आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी जनता के श्रम से उत्पादित सम्पत्ति की लूट करार दिया। इस पर उन्होने संसद में प्रस्ताव रखा। प्रधानमन्त्री के न चाहते हुए भी उन्होने इस प्रस्ताव को सदन से पास करा लिया। बैंको का राष्ट्रीकरण कराने के लिए उनकी जद्दो जहद उनके प्रगतिशील, लिबरल वामपंथी होने को दर्शाता है। यही नहीं, उन्होने मिल-कारखानों में काम करने वाले कर्मकारों को मालिकान में शामिल कर मुनाफे में हिस्सेदारी की वकालत करते हुए बहस चलाया था।
चन्द्रजीत यादव ने कहा था, जाति भारत की कड़वी सच्चाई है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अपने समय में उन्होने सामाजिक न्याय के लिए जाति आधारित जनगणना की आवाज उठाई। उन्होने कहा था, संविधान में सामाजिक व्याख्या के लिए अलग-अलग मानक है। बहुत सी अन्य पिछ़डी जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। इसलिए जाति आधारित जनगणना से ही हम सामाजिक न्याय के पक्ष को सही ढंग से समझ और रख सकते हैं। इतनी पुरानी जाति आधारित जनगणना के आधार पर सामाजिक, आर्थिक लाभ देने की बात बेमानी है। उन्होने कहा था, जाति आधारित जनगणना से इन्कार करना सामाजिक न्याय से इन्कार करना है। चन्द्रजीत यादव ने एक अति गम्भीर एवं महत्वपूर्ण बात कहा ‘‘प्रत्येक क्रान्ति में पुरानी व्यवस्था को बदलकर एक नई व्यवस्था को स्थापित किया जाता है और एक क्रान्तिकारी परिवर्तन से अनेके फायदे हो सकते हैं, तो कुछ नुकसान भी। लेकिन मामूली नुकसान के चलते बहुत से बड़े लाभों की बलि नहीं दी जा सकती। हमने आजादी के बाद क्रान्तिकारी परिवर्तन के संघर्ष में देर कर दी, इसीलिए पुरानी सामाजिक व्यवस्था को बदल कर नयी सामाजिक व्यवस्था स्थापित नहीं कर सके। सत्ता तथा राजनीति का लोभ हमारी एकता को बार-बार खण्डित करता रहा।’’
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