यूपी में NDA को नहीं मिला ओबीसी चेहरों का फायदा...खराब प्रदर्शन की ये हैं प्रमुख वजहें!


लखनऊ। लोकसभा चुनाव में सुभासपा और रालोद भी भाजपा को खास फायदा नहीं पहुंचा पाए। भाजपा ने प्रदेश के चुनाव में पिछड़े वोट बैंक को साधने के लिए एनडीए का विस्तार करते हुए सुभासपा और रालोद जैसे दलों को शामिल किया था। पर दोनों दल कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। यही हाल एनडीए के दो पुराने अन्य सहयोगी अपना दल (एस) और निषाद पार्टी का भी रहा। सपा के पीडीए फॉर्मूले के दबाव में आकर भाजपा ने यूपी में चुनावी समर फतह करने के लिए विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा छोड़ सपा के साथ जाने वाले सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर को दोबारा एनडीए में शामिल किया था। राजभर के ही प्रयासों से वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में मंत्री पद छोड़कर सपा में शामिल होने वाले दारा सिंह चौहान की भी दोबारा भाजपा में वापसी कराई गई थी। इसी तरह ऐन मौके पर इंडिया गठबंधन का हिस्सा रहे रालोद को भी तोड़कर भाजपा ने एनडीए के पाले में कर लिया। जबकि अपना दल (एस) 2014 से और निषाद पार्टी 2019 से ही एनडीए का हिस्सा हैं।

यही नहीं, भाजपा ने एनडीए के सभी सहयोगियों को सीटों में हिस्सेदारी दी थी। सुभासपा को एक तो अपना दल (एस) और रालोद को दो-दो सीटें दी गई थीं। वहीं, संजय निषाद के सांसद बेटे प्रवीण निषाद को दूसरी बार संतकबीरनगर सीट से उतारा था।भाजपा को उम्मीद थी कि इन पिछड़े चेहरों के सहारे गैर यादव ओबीसी वोट बैंक को अपने पाले में खींचने में मदद मिलेगी। मगर चुनाव परिणाम ने इन नेताओं के दावों को बेनकाब कर दिया। चुनाव परिणाम को देखा जाए तो इनके प्रभाव से अधिक दुष्प्रभाव ही सामने आया। ओमप्रकाश राजभर के प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा को फायदा पहुंचाना तो दूर, हिस्से में मिली घोसी सीट पर अपने बेटे अरिवंद राजभर को भी चुनाव नहीं जीता पाए। यही नहीं उनके दावे से जुड़ी बलिया, चंदौली, गाजीपुर, सलेमपुर, लालगंज और आजमगढ़ सीटों पर भी भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है।

यही हाल एनडीए में सबसे बड़े कुर्मी चेहरे के तौर पर खुद को पेश करने वाली अनुप्रिया के प्रभाव का भी रहा। इस बार अनुप्रिया खुद कड़े संघर्ष के बाद किसी तरह चुनाव जीत पाईं और अपने कोटे की राबर्ट्सगंज सीट हार गई। यही नहीं, कुर्मी जाति के प्रभाव वाली प्रतापगढ़, फतेहपुर, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती व जालौन जैसी सीटों पर भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। लोकसभा चुनाव में अबकी बार 400 पार का नारा देने वाली भाजपा की रणनीति यूपी के सियासी जमीन पर फेल साबित हुई है। चुनाव जीतने के सारे जतन धरे रह गए। यूपी में 80 सीटें जीतने का दावा करने वाली भाजपा आधे से भी कम सीटों पर सिमट गई। चुनाव परिणाम ने जहां भाजपा कार्यकर्ताओं में अंदर ही अंदर उपजे असंतोष को उजागर किया है, वहीं संगठन की कमियों का भी पर्दाफाश हुआ है। इस बार न तो भाजपा संगठन की तैयारी कारगर रही और न ही मतदाताओं पर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का ही असर हुआ।

इस चुनाव से यह भी साफ हो गया है कि कार्यकर्ताओं में छाई मायूसी व असंतोष के साथ ही चुनाव प्रबंधन की कमियों ने भाजपा के 80 सीटें जीतने के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा पैदा की। माना जा रहा है कि यूपी में भाजपा की बिगड़ी चाल के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पार्टी के ही बड़े नेताओं का अति आत्मविश्वास है। जिस तरह से स्थानीय और पार्टी के काडर कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए टिकट का बंटवारा किया गया उससे भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ। नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने जिन 17 सांसदों का टिकट काटकर उनके स्थान पर नए चेहरे उतारे थे, उनमें से पांच उम्मीदवार हार गए। भाजपा के लिए 26 मौजूदा सांसदों की हार को भी भाजपा के लिए बड़ा संदेश माना जा रहा है। मनमाने ढंग से टिकट बंटवारे का भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। टिकट बांटने के जिम्मेदारों ने अधिकांश सांसदों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर जनता के बीच उभरे असंतोष को समझे बैगर मैदान में उतरने की वजह से सात केंद्रीय मंत्रियों समेत कुल 26 मौजूदा सांसदों को सीट गंवानी पड़ी है। चुनाव परिणाम के मुताबिक पार्टी के बड़े नेताओं के घरों में भी भाजपा पस्त हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जैसे बड़े नेताओं के जीत की मार्जिन में भारी कमी आई है। वहीं, चुनाव लड़ने वाले सात केंद्रीय मंत्री और प्रदेश सरकार के चार में से दो मंत्री भी चुनाव हार गए। कई सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को कड़ा संघर्ष का भी सामना पड़ा है।

प्रदेश की 80 सीटों को जीतने के लिए भाजपा ने कई नए प्रयोग किए थे, लेकिन चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि उनके सभी प्रयोग फेल साबित हुए हैं। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों से संपर्क अभियान भी बेअसर रहा। टिफिन बैठक, विकसित भारत संकल्प यात्रा, मोदी का पत्र वितरण जैसे कई प्रमुख अभियान और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों को साधने की कोशिश भी नाकाम साबित हुई है। पिछले चुनाव की तुलना में इस बार भाजपा की सीटें ही कम नहीं हुई हैं, बल्कि वोट प्रतिशत में भारी कमी आई है। 2019 के चुनाव में 62 सीटें जीतने वाली भाजपा को 49.97ः वोट मिले थे, लेकिन इस बार यह आंकड़ा 41.37 के करीब पहुंच गया है। हालांकि चुनाव परिणाम की अंतिम गणना होने के बाद इस आंकड़े में अंतर आ सकता है।

खराब प्रदर्शन की प्रमुख वजहें

- पार्टी काडर कार्यकर्तांओं की उपेक्षा, बाहरी पर भरोसा

- संगठन और सरकार में तालमेल का अभाव

- टिकट बंटवारे में मनमानी।

- सिर्फ कागजों पर रही पन्ना प्रमुखों और बूथ कमेटियों की सक्रियता

- अधिकारियों के आगे मंत्रियों तक का बेअसर होना।

भाजपा को इसलिए लगा झटका

- भाजपा ने यूपी में खराब छवि वाले कई सांसदों का टिकट काटने से परहेज किया। कई सीटों पर सांसद विरोधी लहर को नजरंदाज किया गया। इससे कार्यकर्ता हतोत्साहित हुए।

- अधिक सीटें जीतने पर यूपी से योगी को हटाया जा सकता है इस नरेटिव से भी असर पड़ा।

- पार्टी विपक्ष के संविधान व आरक्षण के मुद्दे से ठीक से अपना बचाव नहीं कर पाई। इससे प्रभावित होने वाले पिछड़े व दलित वर्ग के युवाओं को समझाने में विफल रही।

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