यूपी पुलिस के पास नहीं है मुखबिरों के लिए रूपए, इतने रूपयों में पल रहा थानों का पूरा नेटवर्क....


गोरखपुर। यूपी पुलिस की फर्द में मुखबिर शब्द का जिक्र हमेशा होता रहा है. पुलिस में इन मुखबिर का चलन शुरूआत से ही मौजूद है. इनका बहुत लंबा नेटवर्क होता है. लेकिन दिलचस्प यह है कि थानों की पुलिस महज सात हजार रूपए सालाना रकम से मुखबिरों के पूरे नेटवर्क को पाल रही है. यही वजह है कि इन मुखबिरों का नेटवर्क अब धीरे-धीरे काफी कमजोर हो चुका है. जानकारों की माने तो मुखबिरों के लिए मिलने वाला यह गुप्त धन उंट के मुंह में जीरा है. यही वजह है कि अपराधियों पर नकेल कसने में मुखबिर मदद के लिए आगे नहीं आते है. यह रकम पूरी तरह से एसएसपी की कृपा पर निर्भर करती है. इस रकम को ज्यादातर क्राइमबांच में ही खर्च किया जाता है.

दरअसल, बदमाशों का नम्बर मुहैया कराने से लेकर उनकी सीसीटीवी के सामने आए फुटेज के हिसाब से पहचान कराने तक में मुखबिरों की भूमिका इंकार नहीं किया जा सकता है. यही वजह है कि क्राइम ब्रांच हो या फिर थानेदार-चौकी इंचार्ज, उन्हें अपने इलाके को शांत रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा मुखबिर पालना ही पड़ता है. कई बड़ी गिरफ्तारियां या मुठभेड़ इन्हीं मुखबिरों की सटीक संदेशों के आधार पर हुई हैं. हालांकि जब से मोबाइल सर्विलास, सीसीटीवी ने दखल दी है तब से पुलिस की कुछ हद तक निर्भरता कम हुई, लेकिन बाद में यह लगा कि मोबाइल सर्विलांस या फिर सीसीटीवी के बाद भी मुखबिर का अहम रोल है. सबसे ज्यादा बदमाशों की पहचान या उनके लोकेशन पर पता लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका है. लिहाजा पुलिस विभाग मामूली रकम खर्च कर इन मुखबिरों को जिंदा किए हुए हैं.

अगर सूत्रों की माने तो गुप्त धन को गुप्त कामों में खर्च के लिए होते हैं. उस रकम की कोई आडिट नहीं होती है. यह रकम प्रत्येक जिलों को वहां की जरूरत के हिसाब से जारी होती है. जिले के अफसर अगर रकम बढ़ाने के लिए अलग से डिमांड भेजते है तो रकम बढ़ भी जाती है. यहां रकम दो साल पहले तक दस हजार रूपए के नीचे ही होती थी. लेकिन कुछ पूर्व कप्तानों के प्रयास से अब दो लाख के करीब पहुंच गई है. थाने में तैनात एक दारोगा के मुताबिक, उन्हें तो मुखबिर को पालने में महीने में कम से कम ढाई हजार रूपए जेब से खर्च करने पड़ते है. मुखबिर जब कोई संदेश लेकर आता है तो वह कुछ उम्मीद करता है. वह दोबारा सूचना लेकर आए इसलिए उसे कुछ न कुछ देना ही पड़ता है. सिर्फ एक मुखबिर से कम भी नहीं चलता है. पूरे इलाके पर नजर रखने के लिए चार से पांच सक्रिय मुखबिर पालने पड़ते है. वहीं कई थानेदार व चौकी इंचार्ज को तो इस रकम के बारे में जानकारी ही नहीं है. एक थानेदार ने कहा कि जानकारी तो है लेकिन रकम इतनी कम होती है कि मांगने का कोई फायदा नहीं होता है. अब अगर आठ हजार रूपए मुखबिर के नाम पर लेने के लिए डिमांड भी करें तो फिर उससे पूरे साल में किसी एक को ही संतुष्ट नहीं किया जा सकता है.

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