UP के इस जिले में नहीं जलता रावण का पुतला.. मार-मारकर कर...; बनाई जाती है तेरहवीं!



जसवंतनगर। प्रदेश के जसवंतनगर की रामलीला अलवेली है। यहां लोहे के मुखौटों के साथ जहां मैदान में दौड़ते हुए पात्र नजर आते हैं, वहीं यहां रावण पूजनीय भी है। इस रामलीला के अंत में रावण का पुतला नहीं फूंका जाता है। इससे इतर लोग अपने घर के संकटों को दूर करने के लिए पुतले की लकड़ियां घर ले जाते हैं। 2010 में यूनेस्को की रामलीलाओं के बारे जारी की गई रिपोर्ट में इस रामलीला को जगह दी गई थी। 164 साल से अधिक समय से हो रहीं रामलीलाएं दक्षिण भारतीय शैली में मुखोटा लगाकर खुले मैदान में होती हैं। रामायण का सबसे क्रूर पात्रों में से एक रावण के बारे मे तरह-तरह की कहानियां सुनने को मिलती हैं लेकिन जसवंतनगर में रावण की पूजा-आरती होती है। यहां रावण के पुतले को जलाया भी नहीं जाता। त्रिनिदाद की शोधार्थी इंद्राणी बनर्जी करीब 400 से अधिक रामलीलाओं पर शोध कर चुकी हैं, लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी रामलीला कहीं भी देखने को नहीं मिली। रामलीला समिति के प्रबंधक राजीव गुप्ता बबलू तथा संयोजक अजेंद्र गौर बताते हैं कि यहां रामलीला की शुरुआत 1857 से पहले हुई थी। यहां रावण, मेघनाथ, कुंभकरण तांबे, पीतल और लौह से निर्मित मुखौटे पहनकर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिवजी के त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा होता है। रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा पुतला नवरात्र की सप्तमी में लग जाता है। दशहरे वाले दिन रावण की आरती उतारी जाती है और जलाने की बजाय रावण के पुतले को मार-मारकर उसके टुकड़े कर दिए जाते हैं। फिर वहां मौजूद लोग उन टुकड़ों को घर ले जाते हैं। जसवंतनगर में रावण की तेरहवीं भी की जाती है। रामलीला के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता को छोड़कर सभी पात्र मुखोटे पहनते हैं। यह मुखौटे ही दर्शकों को सबसे ज्यादा आकर्षित करते हैं। अलग-अलग रंगों व डिजाइनों में बने यह मुखौटे जसवंतनगर की रामलीला को दुनिया भर की अन्य रामलीलाओं से एक दम अलग प्रदर्शित करते हैं। रामलीला का प्रदर्शन लगभग 100 मीटर लंबे तथा 15 मीटर चौडे़ खुले मैदान में दौड़ते हुए किया जाता है। मैदान में दोनों और बैंड वाले बैंड बजाकर चलते हैं। जब तक युद्व जारी रहता है तब तक बैंड बजते हैं। युद्व के समाप्त होने के बाद बैंड बन जाते हैं।

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